astrology tips: योगकारक ग्रह से चमकता हैं भाग्य
योगकारक ग्रह सूर्य से अस्त होने अथवा अशुभ स्थान पर बैठने से आपको सफलता मिलने में संघर्ष करना पड़ता हैं और इसमें विलंब भी होता हैं। योगकारक ग्रह किसे कहते हैं और कौनसा ग्रह किस स्थिति में होने पर योगकारक ग्रह की भूमिका निभाता हैं आइए जानते हैं।
astrology tips: ज्योतिष शास्त्र में फलकथन के अनेक नियम एवं सिद्धान्त हैं जिनका अध्ययन करके व्यक्ति अपनी जन्मकुण्डली एवं ग्रहों के बल को समझ सकता है। अक्सर ज्योतिष जिज्ञासु योगकारक ग्रहों के बारे में सुनते हैं। योगकारक ग्रह को समझने के लिए थोड़े-से ज्योतिष ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है।
जन्मकुण्डली में 12 लग्न होते हैं, जिनमें कुछ लग्न ऐसे हैं, जिनमें एक ग्रह, एक साथ केन्द्र और त्रिकोण के स्वामी की भूमिका में होते हैं। जिस ग्रह को केन्द्र और त्रिकोण दोनों के स्वामी होकर, योगकारक की उपाधि मिली है, अगर वह शुभ स्थान में बैठा है, जातक का शीघ्र भाग्योदय कराता है।
योगकारक ग्रह सूर्य से अस्त होने पर अथवा अशुभ स्थान पर बैठने पर विलम्ब से भाग्योदय एवं संघर्ष के साथ सफलता दिलाता है। आज हम आपको बताएंगे कि योगकारक का अर्थ क्या है और कौन सा ग्रह कब किस स्थिति में योगकारक ग्रह की भूमिका निभाता है।
योगकारक ग्रह ही तय करता हैं आप सफल होंगे या असफल
भविष्यवाणी करने के लिए ज्योतिर्विदों को चाहिए कि वह जन्मकुण्डली में संवेदनशील बिन्दुओं का पता लगाएं जहां से भविष्य के रहस्यों को खोला जा सके, अर्थात् भविष्य में होने वाली घटनाओं को पूर्ण रूप से जानना संभव हो सके। इसके लिए सबसे पहले योगकारक ग्रह अथवा मुख्य ग्रह खोजना चाहिए जिस पर पूरी कुंडली की सफलता-असफलता निर्भर है। मुख्य ग्रह का अर्थ उस ग्रह से है जिसकी मदद से भविष्य के बंद ताले को खोला जा सके।
मुख्य ग्रहों से जन्मकुंडली का बल पता लगाने में विशेष सहायता मिलती है। जन्मकुंडली का पहला, चौथा, सातवां और दसवां घर केन्द्र तथा पहला, पांचवां, नवां भाव त्रिकोण स्थान कहलाता है। केन्द्र को विष्णु स्थान तथा त्रिकोण को लक्ष्मी स्थान कहते हैं। राजयोग के सृजन के लिए जब एक केन्द्र का स्वामी (विष्णु स्थान) और दूसरा त्रिकोण का स्वामी (लक्ष्मी स्थान) एक साथ हों तो वह विष्णु और लक्ष्मी दोनों की कृपा दर्शाते हैं।
लक्ष्मी नारायण की कृपा से मिलती हैं सफलता
जातक को लक्ष्मी नारायण की कृपा प्राप्त होती है। इस योग के कारण जातक को अपने जीवन में इन ग्रहों के दशा-अन्तर्दशा काल में विशेष सफलता प्राप्त होती है। केन्द्र और त्रिकोण की यह शर्त योग कारक ग्रह अकेला पूर्ण करता है इसलिए वह स्वयं में राजयोग कारक माना जाता है।
जब कोई ग्रह केन्द्र और त्रिकोण दोनों का स्वामी होता है तो उसे योगकारक ग्रह का दर्जा प्राप्त होता है, इस परिस्थिति में राजयोग बनाने के लिए अन्य ग्रहों की युति की आवश्यकता नहीं पड़ती। योगकारक ग्रह स्वयं में ही राजयोगकारक होता है।
भावों के दोहरे स्वामित्व के कारण ग्रह अपने आप में योग कारक बन जाते हैं, जैसे, वृष लग्न में शनि नौवें और दसवें भाव का स्वामी होने के कारण योगकारक ग्रह की भूमिका निभाता है क्योंकि शनि की एक राशि भाग्य स्थान पर और दूसरी कर्म स्थान पर यानि इस लग्न में शनि स्वाभाविक रूप से केन्द्र और त्रिकोण का स्वामी बन जाता है।
शनि के बल से तय होता है राजयोग
शनि के बलाबल से राजयोग की क्षमता का निर्धारण होता है। इसी प्रकार तुला लग्न में शनि चौथे और पांचवे भाव अर्थात् केन्द्र और त्रिकोण का एक साथ स्वामी होने के कारण योगकारक कहलाता है। इसी प्रकार कर्क लग्न में मंगल पांचवें और दसवें भाव का स्वामी, सिंह लग्न में मंगल चौथे और नौवें भाव का स्वामी होने के कारण योगकारक ग्रह की भूमिका निभाता है।
मंगल के बलाबल से कर्क और सिंह लग्न वालों की भाग्य की दशा निर्धारित की जा सकती है। मकर लग्न में शुक्र पांचवें और दसवें भाव का स्वामी होने के कारण योगकारक भूमिका में रहता है और कुंभ लग्न में शुक्र चौथे और नौवें भाव का स्वामी होने के कारण योगकारक कहलाता है।
इसलिए वृष, तुला, कर्क, सिंह, मकर, कुंभ ये छः लग्नें अन्य लग्नों से उत्तम मानी गई हैं। अन्य लग्नों को यह लाभ प्राप्त नहीं है, इस प्रकार शनि, मंगल तथा शुक्र इन तीनों ग्रहों को ही यह वरदान है कि वे योगकारक ग्रह बनकर इन लग्नों के जातकों का भाग्योदय कर सकें। योगकारक ग्रह बलवान होकर व्यक्ति को जीवन में अपार सफलता प्रदान करते हैं।